गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

दर्द है सुबह शाम लेकिन...

बदलते वक्त के साथ हम भी बदल रहे हैं और बदल रही हैं हम से जुड़ी जिंदगियां...हमारे वजूद में भी फर्क आ रहा है.....तो क्या समय का पहिया सिर्फ औऱ सिर्फ हमें बदलने के लिए बना है...लगता तो यही है.. जब हम बच्चे तो पैसे कमाने और हर चीज पाने की चाहत इतनी प्रबल थी कि पढ़ाई में ध्यान कम और इस इच्छा की पूर्ति कैसे की जाए इस पर ज्यादा होती थी...फिर हम जवां हुए और हमारी चाहत किसी का प्यार पाने और जो कुछ पैसे हमारे पास थे उसको दोगुने करने की हुई....किसी ने सच कहा है भूख कभी शांत नहीं होती..वो चाहे पैसे की हो या पेट की या फिर शारीरिक....लेकिन इन सब के बीच हमने बुहत कुछ खोया...खोया अपना बचपन..खोयी अपनी जवानी और खोया अपना आज और बहुत हद तक कल भी.....फिर क्या पाया हमने...आज जब इस सवाल का जवाब खुद से मांगता हूं तो लगता है शायद कुछ नहीं... जिंदगी की सिलवटें परत-दर-परत खोलते हुए भी शर्म आती है आखिर किस लिए संघर्ष कर रहे हैं हम क्या वो पाने के लिए जिसको पाकर हम खुश नहीं या वो पाने के लिए जिससे हम दूसरों को नीचा दिखा सकें या फिर समाज में रुतबा पाने की होड़ में हमने अपनी खुशी गुम कर दी....सवाल कई हैं लेकिन जवाब नहीं..आखिर जवाब आए भी तो कहां से और किस मुंह से..जिस सफलता की डींगे हांकते हम नहीं थकते उसकी बुराई हम कैसे करें..ज्यादती होगी...ये दर्द सिर्फ मेरा नहीं जहां तक मैं समझता हूं ये दर्द मेरे जेनरेशन की युवा पीढ़ी का है और इस आग में हम सब जल रहे हैं...दर्द है सुबह शाम लेकिन मुंह से उफ तक नहीं निकलती...खैर जीवन रूपी नैया शायद इसी तरह चले क्योंकि हमसे क्रांति या बदलाव की उम्मीद बेकार है..हम आदी हो चुके हैं उस जिंदगी की जो हमें पसंद नहीं और जिसको बदल देने की कसमें हम रोज खाते हैं...

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