गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

गरीब की मौत पर अमीरों के कहकहे

काम का बोझ हल्का करने के लिए लोग गरीब की मौत को भी मजाक बनाने से नहीं चूकते...... तेज रफ्तार से दौड़ती गाड़ी ने फुटपाथ पर रह रही एक मासूम बच्ची को कुचल डाला.....फुटपाथ पर चाय बेचकर अपना गुजारा करने वाली रश्मि को क्या मालूम था कि मौत उसके करीब है, नहीं तो वो क्यों फुटपाथ..........

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

यूं तो कामनियों के दिनोंदिन छोटे होते कपड़ों पर तथाकथित बुद्दिजिवियों ने काफी बहस कर ली, लेकिन आज मैं इस पर भी कुछ लिख-पढ़ लेना चाहता हूं.....कोई सारियस चर्चा नहीं जनाब, बस एक हल्की-फुल्की बात करने जा रहा हूं..... आपको एक वाकया सुनाते हैं.... नहीं इस वाकये से हुए अनुभव को बताता हूं......दरअसल सुंदरियों द्वारा पहने जा रहे छोटे कपड़ों के कई फायदे हैं....पहला, वो सबकी नजरों पर होती है-जाहिर है इससे वो चर्चा का केंद्र भी बन

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

खेल की राजनीति या फिर राजनीति का खेल

यूं तो शोएब पाक में खेल की गंदी राजनीति का शिकार हुए हैं लेकिन ये बात भी उतना ही सच है जितना कि वो बदमिजाज भी कम नहीं ......ये तो हुई शोएब और उन पर हुई कारर्वाई की बात......लेकिन अगर इस घटना से जुड़े अन्य पहलुओं पर विचार करेंगे तो पाएंगे कि शोएब सिर्फ पाकिस्तान में चल रही राजनीति की ही नहीं एक तरह से खेल में हो रही गुटबाजी औऱ अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के बीच फंस गए.... कैसे? अब देखिए पाक ने जैसे ही पाबंदी लगाई वैसे ही इंडियन प्रीमियर लीग ने भी उनसे नाता तोड़ने की मंशा जाहिर कर दी....हालांकि शाहरुख, जिनकी टीम के लिए शोएब खलेने वाले थे, ने कहा है कि शोएब के न होने से उनकी टीम प्रभावित होगी और वो मीटिंग कर रहे हैं.....पर इन सबके पीछे की घटनाओं पर विचार कीजिए आखिर पाक में पाबंदी लगने पर आईपीएल से शोएब को हटाने का कारण क्या हो सकता है....जाहिर है अगर शोएब को आईपीएल में खेलने दिया गया तो पाक बीसीसीआई से नाराज हो सकता है...हो सकता है इस नाराजगी में वो आईपीएल का बहिष्कार कर दे या फिर आईसीएल के खिलाड़ियों को टीम में जगह दे दे......जो हरगिज बीसीसीआई को गंवारा नहीं होगा.......अगर पाक ने ऐसा किया तो आईसीएल कुछ हद तक आईपीएल को चुनौती दे सकता है या यूं कह सकते हैं कि खेल राजनीति का परिदृश्य कुछ हद तक बदल सकता है जिससे आईसीएल को फायदा और आईपीएल को हानि पहुंच सकती है..... बोर्ड अध्यक्ष डालमिया ये हरगिज नहीं चाहेंगे कि आईपीएल के लिए कोई चुनौती बने....बोर्ड अध्यक्ष ही क्यों विश्व का कोई भी बोर्ड ये नहीं चाहेगा....क्योंकि उनके खिलाड़ियों के हित आईपीएल से जुड़े हैं....इस तरह आईपीएल प्रशासन पर ये भारी दबाव है कि शोएब किसी भी हालत में आईपीएल टीम की ओर से गेंद न फेंक सकें.....खैर देखते हैं खेल की राजनीति या फिर राजनीति के इस खेल में आगे क्या होता है.....

सोमवार, 14 जनवरी 2008

मन्नो का ख़त

उस दिन शिवालिक की पहाड़ियों के आँचल में पहुँचते-पहुँचते साँझ हो गई. मुझे अगले दिन पता चला कि मैं थोड़ा और चल लेता तो मुझे नहर के डाक बंगले में शरण मिल सकती थी. पर तब तक सूरज बिल्कुल डूब गया था और पहाड़ियाँ धुंध के कारण मटमैली दिखाई देने लगी थी.
मैं चिंतित होकर आगे बढ़ रहा था कि अब रात घिरने लगी है आश्रय मिलेगा भी तो कहाँ? तभी एक बूढ़ा एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में पानी का लोटा थामे गाँव के बाहर जाता दिखाई पड़ा. मैं चुपचाप खड़ा, तमसाकार होती सृष्टि को देखता रहा. बूढ़ा मेरे नज़दीक आया तो ठहरकर मुझे देखने लगा. उसने अपनी मिचमिचाती आँखे झपझपाकर पूछा, ‘‘कौन है भाई?’’
‘‘अजनबी हूँ बाबा.’’
‘‘वो तो समझ गया. कौन जात हो? अपनी जाति तो मैंने बता दी. पर कहाँ का रहने वाला हूँ, यह प्रश्न मैं टाल गया.’’
मैंने पूछा, ‘‘बाबा यहाँ रात को कहीं ठहरने का ठौर मिल सकता है?’’
ठहरने की जगह तो यहाँ कहाँ धरी है पर बेटा एक बात पूछे हूँ,‘‘इस उमर में बैरागी बने क्यों घूम रहे हो? जो उमर खाने, कमाने, घर बसाने की है उसमें भले घर के बालक क्या ऐसे घूमते हैं?’’ फिर ज़रा रुक कर उसने संदेह व्यक्त किया,‘‘लगे है घर से भागे हो. कहीं महतारी तो दूसरी नहीं है?’’
मुझे उस बूढ़े की ममता से एक विचित्र से स्नेह की अनुभूति हुई. मुझे अपनी सफ़ाई में कुछ भी कहना बेमानी लगा. मैं ऐसे एक बूढ़े को जिसकी बरौनियाँ तक सफेद हो चली थीं, क्या समझा पाता कि घूमना-फिरना या यायावरी भी एक काम है.
वह बोला,‘‘मेरे कोठड़े में पड़ रहना और तो अब कहाँ टक्कर मारते फिरोगे।’’
मैं अभी आया कहकर बूढ़ा लाठी ठकठकाता आगे बढ़ गया. 15-20 मिनट बाद जब वह हाथ में खाली लोटा लटकाए लौट रहा था तो उसकी लाठी की ठकठक और बढ़ गई थी.
मैं भी उसके संग-संग चल पड़ा. उसने मुझे गाँव के किनारे पर लाकर एक ध्वस्त चबूतरे के नज़दीक ले जाकर खड़ा कर दिया. इसके बाद वह अपने घर गया और बेतरह धुआँ देती एक ढिबरी लेकर लौट आया. उस जीर्ण चबूतरे पर चढ़कर मैंने लक्ष्य किया कि उसके कच्चे कोठड़े में बस दीवारें ही थीं. छत शायद बैठ गई थी. मैंने भीतर जाकर देखा वहाँ एक चारपाई पड़ी थी. ढिबरी एक आले में रखकर वह बोला, ‘‘ यहाँ गरमी लगे तो खाट बाहर चबूतरे से निकाल लेना.’’
मैंने कहा,‘‘कोई ज़रूरत नहीं. मैं यहीं पड़ रहूँगा.’’ यह कहकर मैंने अपना सफ़री थैला चारपाई के सिरहाने टिका दिया. बूढ़ा चला गया तो मैं चारपाई की पाटी पर टिककर कुछ सोचने लगा. तभी वह एक फ़टी दरी और तकिया लेकर आया. मुझे उसके चलने के ढंग से लगा कि बूढ़े को रात के समय कुछ ठीक से सूझता नहीं है.
जब वह चला गया तो मैंने थैले से अपनी लूँगी निकालकर पहन ली और पाजामे को तहाकर तकिए के नीचे रख दिया. तीसरे पहर एक कस्बे से गुजरते हुए जो चना और गुड़ खरीदे थे अभी पोटली निकालने की सोच ही रहा कि वह बूढ़ा हाथ में पानी भरा लोटा लिए आता दिखाई पड़ा. इस बार वह अकेला नहीं था. ढिबरी की धुआँ-धुआँ रोशनी में मैने देखा कि उसके पीछे लंबे कद की एक स्वस्थ तरूणी भी थी. वह काले रंग की सूती धोती पहने हुई थी. शायद वह खाना बनाते-बनाते चली आई थी इसलिए चूल्हे की आग की उमस के कारण उसका गौरवर्ण और भी निखर उठा था.
उन दोनों को देखकर मैं चारपाई से उठकर खड़ा हो गया और आगे बढ़कर बूढ़े के हाथ से पानी का लोटा लेने लगा। तभी मैंने देखा लड़की अपने दोनों हाथों से एक थाली पकड़े हुए थी. लड़की ने उड़ती सी नज़र मुझ पर डाला और आँखे झुका ली. उसके हाथों से थाली लेते हुए मुझे संकोच की अनुभूति हुई. पर थाली उसके हाथ से लेनी ही थी सो मैंने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर ले ली और चारपाई के बीचों बीच टिका दी.
उन दोनों के जाने के बाद मैंने उस घिसी हुई पर ढंग से मांजने के कारण चमचमाती थाली में चार रोटियाँ, भाजी और दो हरी मिर्चे रखी देखी. निश्चय ही मुझे खाने की बहुत ज़रूरत महसूस हो रही थी. मैं दबादब चारों रोटियाँ पाँचेक मिनट में ही चट कर गया. वह जब तक दो रोटियाँ और लेकर आई तब मैं पानी का पूरा लोटा पीकर तृप्ति की डकार ले चुका था. थाली मैंने चारपाई के नीचे टिका दी थी.
उसने मेरे चेहरे पर अपनी बड़ी-बड़ी पानीदार आँखे केंद्रित करके पूछा,‘‘बस्स! इतना सा खाते हो?"
"हाँ और क्या? आदमी तो इतना ही खा सकता है."
उसने हल्के से मुस्कराकर कहा,‘‘चार रोटियों से से जादे खाने वाले क्या डंगर होते हैं.’’
मैंने जीभ निकालकर दाँतों से काटी और बोला, "नहीं नहीं. मेरा वह मतलब नहीं था."
उसने झुककर चारपाई के नीचे से खाली लौटे, जूठी थाली निकाली और खाली लोटे को उठाते हुए बोली,‘‘पानी मैं अभी ला रही हूँ.’’
लेकिन पानी का लोटा लड़की लेकर नहीं आई बल्कि बूढ़ा ही लाया. मैंने उसे बैठने को कहा तो वह चारपाई पर टिकते हुए बोला, "तुम्हें सोने की देर हो रही होगी."
नहीं-नहीं आप बैठिए. मैं इतनी जल्दी कहाँ सोता हूँ.
जब वह बैठ गया तो अपने बारे में बतलाने लगा. उसके पास कुल जमा तीन बीघा जोत थी जिसे वह बटाई पर उठा देता था. उसका एक मात्र पुत्र, दूसरी पत्नी का भी देहांत हो जाने पर वैरागी होकर पता नहीं कहाँ चला गया था. उसकी बेटी ही अब बूढे का एक मात्र सहारा थी. बूढा अपने गाँव तथा आसपास के छोटे-छोटे नंगलों और पुरवों में कथा-वार्ता करके कुछ पा जाता था. कुछ बटाइदार से और बाक़ी यजमानी से जो कुछ भी उपलब्ध होता था उसी से दादा-पोती की गुजर हो रही थी. मगर अब उस बूढ़े की सबसे बड़ी चिंता जवान होती पोती के विवाह को लेकर थी.
मैं खिन्नमना उसकी चिंताएँ सुनता रहा और अब उसकी बात भी ठीक से समझ में आ गई जो उसने मुझसे मिलते ही कही थी ‘‘लगे है घर से भागे हो’’ मेरे यों भटकने में उसे कहीं घर छोड़कर भाग जाने वाले अपने बेटे की ही झलक मिली होगी.
अपनी राम कहानी कहकर जब बूढ़ा चला गया तो मैंने अपने थैले से डायरी और कलम निकालकर तकिए पर रख ली. मैं रात को जहाँ भी सोता था सोने से पहले डायरी में एक-दो पृष्ठ अवश्य लिखता था. पर मैं तुरंत कुछ लिख नहीं पाया. मुझे उस जर्जर बूढ़े की डाँवाडोल काया और उसकी जवान होती पोती का ख़्याल आ गया. मैं सोचने लगा मानों अगर साल-छह महीने में बूढे की आँखे बंद हो गई तो उस खिलते हुए यौवन की दशा क्या होगी? कौन देखेगा पितृहीन परिवारहीन उस आश्रयहीन को.
धीरे-धीरे सन्नाटा बढ़ता चला गया. दूर कहीं से एक साथ कई कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें आ रही थीं. पेड़ों पर बसेरा लेने वाले पक्षी भी बीच-बीच में पंख फडफड़ा उठते थे. वह रात की निस्तब्धता में डूबी चुप्पी विचित्र मायावी लोक की सृष्टि कर रही थी.
मैं लगभग गाँव से बाहर एक छतविहीन कोठड़े में बैठा सोच रहा था कि आख़िर मैने ख़ुद यायावरों जीवन क्यों चुना? क्या रात बिरात ऐसी ही बीहड़ परिस्थितियों में भटकने के लिए?
ढिबरी का धुआँ मेरी ओर ही आ रहा था. मैंने उसकी परवाह न करके अपने डायरी खोली और ढिबरी की भुतही रोशनी में लिखने का कर्त्तव्य पूरा करने लगा. अभी मैंने कुछेक पंक्तियाँ ही लिखी होंगी कि वह युवती आती दिखाई पड़ी. वह एक तरह से बदन चुराते हुए मेरे निकट आ रही थी. हालाँकि वहाँ आसपास इस निविर बेला में कोई नहीं था मगर फिर भी...
मेरे नज़दीक आकर उसने लगभग फुसफुसाते हुए पूछा,‘‘किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं है.’’
कुछ समय के लिए तो मैं अवाक् बैठा रहा. वह चारपाई के कुछ और निकट आकर मेरी खुली डायरी की ओर संकेत करते हुए बोली बोली, ‘‘क्या लिख रहे हो?’’
मैंने यों ही बात बताने की गरज़ से कहा यही इधर-उधर की बातें. जैसे मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ का छोटा-मोटा ब्यौरा.
‘अच्छा’ कहकर वह कुछ क्षण चकित भाव से डायरी देखती रही और बोली, ‘‘क्या इसमें यहाँ की बातें भी हैं, इस कोठड़े और चंडी देवी के मंडप की भी?’’
‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं लिखूँगा. पर यहाँ चंडी मंडप कहाँ है? उसे तो मैंने अभी देखा ही नहीं है.’’
‘‘सुबह देख लेना। बाबा जी कल सतनारायण की कथा करने माजरे जाएँगे-तभी देख आना।’’ एक क्षण ठहरकर उसने एकाएक पूछा,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे?’’
मैं उसके इस औचक प्रश्न के आशय का कोई अनुमान नहीं लगा पाया. मुझे उलझन में पड़ा देखकर वह थोड़े से मुस्कराई और बोली,‘‘कोई ऐसी वैसी बात नहीं है. अब तुम सो जाओ सवेरे बताऊँगी.’’
उसके चले जाने के बाद ही मेरी चेतना में उसके वह वाक्य,‘‘क्या मेरा एक काम कर दोगे.’’ न जाने कितनी देर गूँजता रहा. न फिर मुझे जल्दी नींद ही आई और न मैं डायरी में ही कुछ लिख पाया. ढिबरी बुझाकर मैं उस चिंतन में चारपाई पर पड़े करवटें बदलता रहा.
उस लड़की का दादा तो सुबह जल्दी ही जाग कर के किसी गाँव में कथा कहने चला गया. मैं सुबह उठकर खेतों की ओर निकल गया. लौटते में प्राइमरी मदरसा गाँव के उत्तर खंडरनुमा चंडी देवी का मंडप भी देख आया.
मैंने लौटकर अपनी डायरी खोली और पिछले दिन का विवरण लिखने लगा. कोई दसेक मिनट बीते होंगे कि वह आई और मुझे लिखते देखकर वापस जाने लगी. मैंने उसे बुलाकर कहा,‘‘क्या एक प्याला चाय मिल सकती है?’’
‘‘हाँ चाय तो मैं बना दूंगी पर प्याले घर में नहीं हैं. गिलास-कटोरी में पी लेंगे.’’? क्यों नहीं पी लूँगा. तुम लाकर तो देखो.’’
उसके चेहरे पर स्नेहशीलता भाव उभर आया. जाते-जाते बोली,‘‘दो मिनट में चाय बनाकर लाती हूँ.’’
मैं सिर झुकाकर अपनी बातें और डायरी देखने में जुट गया. वास्तव में वह अपेक्षा से कहीं अधिक जल्दी से वह चाय बनाकर ले आई और गिलास से कटोरी में चाय रखने लगी.
मैंने उसके हाथ से कटोरी लेकर फूक भरते हुए चाय की घूट भरी ही थी कि वह बोल उठी आप शहरी चीनी की चाय पीते होंगे पर घर में तो गुड़ ही था. पता नहीं कैसी बनी होगी. कही काढ़ा तो नहीं बन गई.’’
‘‘अरे नहीं, बहुत ---मीठी और बढ़िया बनी है.’’
‘‘झुट्ठी तारीफ़ क्यूँ करो हो! भला हम गाँव-घसले चाय बनाना क्या जानें. यों तो बब्बा जी भरे जाड़ों में सुबह-साँझ लोटा भर के चाय पीवे हैं. उन्हीं के लिए पूस-माघ के चिल्ला जाड़े में बनानी पड़े है.’’
‘‘कुछ भी कहो तुमने चाय बढ़िया बनाई है.’’ कहकर मैने कटोरी झुककर फर्श पर टिका दी और फिर मैं लग गया.
उसने इधर-उधर की टोह सी लेते हुए थोड़ी देर बाद कहा,‘‘हाँ, एक ख़त लिख दो.’’
‘‘ख़त? पर किसको? एक क्षण रुककर मैंने पूछा,‘‘क्या तुम लिखना नहीं जानती?’’
वह लज्जाकर बोली पर मुझसे लिखना कहाँ आता है. लिखने की कोशिश कई दिन की पर लिखा नहीं बस.
‘‘तब तो लिख दूँगा.’’ मैंने अपने बैग से एक कोड़ा कागज निकालकर कहा,‘‘बोलो किसे क्या लिखना है.’’
वह कुछ पल असमंजस में पड़ी सोचती रही और फिर आँखे झुकाकर बोली,‘‘यही लिख दो कि तुम इतने दिन से क्यों नहीं आए?’’
उनके एक छोटे से वाक्य से मैं हिल उठा और और उलझन में पड़कर पूछ बैठा,‘‘कौन है? कहाँ रहता है? इधर न आने की क्या वजह है?’’
उसके चेहरे पर उदासी का एक बादल तैरता सा दिखा और आँखे उन्मन उदास हो गई.
उसने टुकड़ों में जो कुछ बतलाया उसका सारांश यह था कि वह एक प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था जो पहले इसी गाँव के प्राइमरी मदरसे में तैनात था और जब इस कोठड़े की छत सही सलामत थी तो इसी में रहता था. बाद में कहीं तबादला होकर चला गया था. जाने के बाद गाँव में कभी बस एक बार इधर आया था.
मैंने उससे पूछा,‘‘क्या तुम्हारे पास उसका कोई पता ठिकाना है?’’
मेरे यह कहते ही मेरी ओर से पीठ फेर ली और अपने अंत:वस्त्रों से एक कई तहों में मुड़ातुड़ा कागज़ निकालकर मेरी ओर बढ़ा दिया. उस कागज़ को मैंने अतिरिक्त सावधानी से खोला, उस पर एक नाम और किसी गाँव का पता दर्ज़ था मगर कागज़ तुड़मुड़कर और चिकनाई के धब्बों से खस्ता हो चला था.
मैंने कागज़ पर लिखे पते को अपनी डायरी में उतारा और कागज़ उसे वापस कर दिया. वह खाली कटोरा और गलास ले जाते हुए बोली, ‘‘आप लिखो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूँ.’’
वह चली गई तो गहरा भावावेश अनुभव करते हुए मैंने एक काव्यात्मक पत्र लिखा. पहली वार जीवन से एक प्रेमिका के उदगारों को व्यक्त करने में मेरी सारी चेतना और संवेदना कितनी सफल हो पाई यह तो मैं नहीं बतला सकता पर मैं कुछ समय के लिए दिशा और कालबोध से परे हो ही गया.
वह आई और मुझे लिखते देखकर कुछ बोलने लगी। मैंने उसे रोका और अपना लिखा हुआ मजमून उसे देते हुए बोला, "अब तुम अपने लेखन में इस पत्र को लिखो और बाद में अपना नाम भी लिख दो. उसे यह नहीं लगना चाहिए कि इस ख़त को लिखने वाला कोई और है." साथ ही मैंने उसे एक कोरा कागज़ और कलम भी उसे दे दिया.
कोई पौन घंटे बाद वह मेरे लिखे हुए पत्र की अपने हाथ से लिखी हुई नकल लेकर आई. उसने टेढ़े मेढे अक्षरों में भरसक सावधानी बरतते हुए पूरे पत्र को मेरे दिए हुए कोरे कागज़ पर उतारा और अंत में 'आपकी अभागी मन्नो' टीप दिया था.
मैं उसका यह ‘अभागी मन्नो’ मुझे भीतर तक हिला गया और मैं अपने ही लिखे पत्र के दारुण वियोग से दहल उठा. मुझे लगा परकाया प्रवेश भी सुरक्षित नहीं है. कभी-कभी वह भी भीतर तक तोड़ डालता है. उस पर गज़ब वह भी था कि वह पत्र पढ़ते हुए वह रोई भी ज़रुर होगी क्योंकि पत्र पर आँसू के निशान मौजूद थे और उसकी आँखे गुड़हल के फूल की तरह लग रही थीं.
अनायास मेरे मुँह से एक लंबी साँस निकल गई और मैंने फैसला किया कि मुझे वहाँ से तुरंत चल देना चाहिए.
मैंने कहा,‘‘मन्नो अब मुझे जाना चाहिए.’’ एक पल बाद ही सहसा मेरे मुँह से एक असत्य उच्चारण हुआ, "मुझे आगे काफी काम है.’’
‘‘ये क्या? बाबा जी से मिले बिना ही कैसे चले जाओगे? अभी तो आपने कुछ खाया भी नहीं है. जितनी देर में बाबा जी आवें आप मंदिर की तरफ घूम आओ. हमारे गाँव की चंडी देवी बड़ी मानता वाली हैं. मन की सारी मुराद पूरी हो जाएँगी. दशहरे पर तीन दिन का बड़ा मेला लगता है. जाने कहाँ-कहाँ से दुनिया मनौती मानने आती हैं.’’
‘मुराद’ और 'मनौती' के शब्द मेरी चेतना में तैरने लगे.
मुझे लगा मन्नो का ठहरने का अनुरोध कहीं मेरे लिए बेड़ी न बन जाए. इस बैरागी मन को ठाँव कहाँ?
मैंने उसका कोई आग्रह नहीं माना. एकदम से थैला उठाकर चल पड़ा और चलते-चलते बोला, "मैं तुम्हारा ख़त किसी शहर से पोस्ट कर दूँगा."
‘‘नहीं रुकोगे? बाबा जी दुखी होंगे. कुछ खाया भी नहीं.
‘‘मैं कभी आऊँगा तो रुकूँगा और खाऊँगा भी. उसने चबूतरे, पर खड़े होकर मनुहार से कहा,‘‘ज़रूर आना.’’
उसके शब्दों के अतिशय अनुरोध ने मेरे अस्तित्व को मानों अथाह स्नेह से दुलरा दिया है. कोमल स्पर्श की ममतामई छवि को आँखों ही आँखों में बसाए मैं बरबस आगे बढ़ता चला गया.
उदासी के सैलाब में डूबे उसके चेहरे को मुड़कर देखने का साहस मैं खो चुका था।
से. रा.यात्री,एफ-1/ ई, नया कविनगर, गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश ( साभार-बीबीसी)

सोमवार, 7 जनवरी 2008

"Cricketers turned into a pack of wild dogs"

Australia should immediately sack its arrogant and abrasive captain Ricky Ponting and it's a surprise that India has not called off the tour and gone back home, said an aghast Peter Roebuck. Lambasting the members of the Australian side for their rude behaviour, Roebuck, the former Somerset captain who is based in Sydney, singled out Ponting and said the captain must be sacked.

"If Cricket Australia cares a fig for the tattered reputation of our national team in our national sport, it will not for a moment longer tolerate the sort of arrogant and abrasive conduct seen from the captain and his senior players over the past few days," said the furious former cricketer, also one of the best cricket writers of his era. "Beyond comparison it was the ugliest performance put up by an Australian side for 20 years," he wrote in his column for 'Sydney Morning Herald'.

"The only surprising part of it is that the Indians have not packed their bags and gone home. There is no justice for them in this country, nor any manners," he observed. He said the lack of sportsmanship among the Australians hurt their young fans and former players alike. "Pained past players rang to express their disgust. It was a wretched and ill-mannered display and not to be endured from any side, let alone an international outfit representing a proud sporting nation," Roebuck wrote.

According to him, Ponting and his men had embarrassed Australia through their triumph in the spiteful second Test. "The notion that Ponting can hereafter take the Australian team to India is preposterous. He has shown not the slightest interest in the well-being of the game... not a single mark of respect for his accomplished and widely admired opponents." He was no less harsh on the hosts for targeting Harbhajan Singh, who has been slapped a three-match ban for racially abusing Andrew Symonds, a charge the player and his team have vociferously refuted.

"Harbhajan Singh can be an irritating young man but he is head of a family and responsible for raising nine people. And all the Australian elders want to do is to hunt him from the game." "Australian fieldsmen fire insults from the corners of their mouths, an intemperate Sikh warrior overreacts and his rudeness is seized upon. It might impress barrack room lawyers," he said. "In the past few days, Ponting has presided over a performance that dragged the game into the pits. He turned a group of professional cricketers into a pack of wild dogs." (PTI)

रविवार, 6 जनवरी 2008

Sledging in Gentleman Game

अभी तक बात सिर्फ स्लेजिंग तक थी लेकिन अब हद हो चुकी है। जो दोषी नहीं उसे सजा मिल रही है और जो दोषी हैं उन्हें छोड़ दिया जा रहा है। हरभजन पर प्रतिबंध सरासर गलत है। बीसीसीआई को चाहिए था कि वो तुरंत घोषणा करती - टीम इंडिया लौट रही है। लेकिन नहीं, वही पुराना ढर्रा अपील करेंगे.... शर्मनाक है ऐसा रवैया। आखिर आपका क्या सम्मान रह गया। आपकी बात नहीं मानी गई। जी हां, भज्जी के खिलाफ सुनवाई में सचिन की बात को तव्वजो नहीं दिया गया जबकि हेडेन और क्लार्क की बातों पर गौर किया गया। इतना ही नहीं बिना किसी सबूत के आधार पर भज्जी को तीन टेस्ट मैच के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब तक हम खेल भावना से थोड़ी बहुत स्लेजिंग को ignore करते रहे हैं। पर अब जो भारतीय खिलाड़ियों के साथ हुआ है उससे खेल प्रेमियों की भावनाएं काफी आहत हुई हैं। मेरी नजर में तो आईसीसी का रवैया ही नस्लभेदी है? आखिर हर बार भारतीयों की अपील अनसुनी क्यो कर दी जाती है। दरअसल ऑस्ट्रेलियाईयों ने अब क्रिकेट को पूरी तरह mind game बना लिया है। और वो इसके लिए सभी हदें पार कर रहे हैं। सीरीज में बेईमानियों की हद हो गई। अंपायरों ने एक-दो नहीं कई गलत फैसले दिए। वो भी सिर्फ भारतीयों को नुकसान पहुंचाने वाले..... इसे क्या कहेंगे आप ?