रविवार, 12 अप्रैल 2009

इंतहा हो गई इंतजार की...

उससे किए वादे को निभाना मुश्किल हो रहा है, प्यार की इतनी बड़ी कीमत चुकानी होगी, सोचा न था...उससे जुदा रहना मुश्किल हो रहा....महीने का दर्द सालों जैसा लग रहा है...पता नहीं सालों की जुदाई कौन सा दर्द दे जाए......तनाव और गम जीवन का हिस्सा बनते जा रहे हैं जैसे जैसे उसका फिर से लौटकर आना टलता जा रहा है.....लगता है अब जान जाने के बाद ही बहार आएगी.......आप युवा होते हैं तो प्यार का खुमार चढ़ता है, लेकिन ये प्यार कम और आकर्षण ज्यादा होता है या यूं कहें कि कुछ पाने की इच्छा ज्यादा होती है या पूरी ईमानदारी से कहें तो यौन पिपासा ज्यादा होती हैं.....लेकिन जब आपका ध्यान इससे हटता है और आपको सही में प्यार होता है मतलब जब आप सही में एक-दूसरे की नजरों से ओझल होकर जी नहीं पाते तो असल में ये प्यार का खुमार होता है.....और इसी खुमार में जी रहा हूं मैं....इंतहा हो गई इंतजार की..........लेकिन ये इंतजार खत्म होने वाली नहीं...क्योंकि इसमें कई अड़चने हैं...कभी आपने सोचा है किसी के इंतजार में पूरी जिंदगी बिताना कैसा रहेगा....हर रोज नई उम्मीदें, हर रोज नया सपना...हालांकि हर शाम सपने के टूटने का गम उस पर ज्यादा भारी पड़ता है....आप गुस्से और निराशा का शिकार होते हैं...फिर अगली सुबह......? लेकिन क्या आपने कभी उसके बारे में सोचा है जिसके इंतजार में आप अपनी जिंदगी गुजारते हैं, आपके पास जीने के बहुत सारे सहारे हैं और समाज भी आपको बहुत सारी रियायतें देता है.....लेकिन उसे नहीं.....एक अकेली लड़की...ढेर सारे सपने और मनचाहे जीवनसाथी की तलाश....लेकिन मिलता क्या है मजबूरियों के नाम पर टूटते सपनों का संसार और अकेलापन...ये कहना आसान है....दूसरे की तलाश..लेकिन इस दूसरे को स्वीकार करना उससे भी ज्यादा मुश्किल.....ऐसा करने पर आपको महसूस होता है जैसे कि आप कसाई के यहां अपनी गर्दन कटने का इंतजार कर रहे हों...न खुलकर सांस ले पाते हैं और न ही दिल की बातें किसी से बोल पाते हैं......लेकिन इन सब के बावजूद जीना पड़ता है....क्योंकि इसी का नाम जिंदगी है.......

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

जाने क्यों लोग मुहब्बत किया करते हैं

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

वोट दो...वोट दो

अगर आप वोट नहीं कर रहे तो सो रहे हैं। ये एक एड की लाइन है.....बात सच है लेकिन कुछ हद तक....इसी एड में एक सवाल पूछा गया है ...किसको वोट दें और क्यों दें.....क्या आपको नहीं लगता ये सवाल एकदम स्वभाविक है...एक तरफ तो नेता युवा पीढ़ी से वोट की आशा करते हैं दूसरी तरफ उस युवा पीढ़ी के लिए वो पांच सालों तक कुछ नहीं करते॥हां अगर उनके घर में कोई युवा हो तो उसका सुनहरा भविष्य तय हैं.....क्यों मैं गलत कह रहा हूं...आप भी इत्तेफाक रखते होंगें....वोटिंग के प्रति युवा वर्ग की उदासीनता यूं ही नहीं पनपी है। इसके पीछे ठोस वजहें हैं और इन वजहों का कम से कम आने वाले समय में कोई निदान होता नहीं दिखता....क्या करे वो युवा जो दिन-रात कड़ी मेहनत करता है और फिर भी अपनी जरुरतों के लिए जूझता है?क्या करे वो युवा जो देखता है नेता दिनोंदिन भ्रष्ट होते जा रहे हैं औऱ अपनी जेब भरने में पीछे नहीं रहते? क्या करे वो युवा जो देखता है कि चुनाव के वक्त जिस प्रत्याशी को उन्होंने वोट दिया था वो चुनाव बाद किसी बड़े घोटाले में हिस्सेदार रहे नेता के साथ मिलकर सत्ता संभाल रहा है? क्या करे वो युवा जो देखता है कि नेता जी पांच साल में एक बार उसका हालचाल पूछने आते हैं और विकास के नाम पर उसके शहर की सिर्फ गलियां ढकी गई हैं?
ऐसे अनेक सवाल हैं इस युवा पीढ़ी के दिमाग में..और यही वजह है कि इन सवालों को और नहीं बढ़ाने के लिए युवा वोट नहीं कर रहे....क्या अब भी आप चाहते हैं कि युवा वोट करें....लेकिन किस उम्मीद से...क्रांति...ये शब्द छोटा है लेकिन अपने आप में बड़ा अर्थ रखता है......आप उस देश में क्रांति की क्या उम्मीद कर सकते हैं जहां एक युवा को घर चलाने के लिए बारह घंटे काम करना पड़ता है...उसके बाद घर की जिम्मेदारियां- बच्चे, रिश्तेदार और पड़ोसी.....समय कहां बचता देश के बारे में सोचने को....रात को सोने वक्त भी आफिस के दबाव और नौकरी कैसे बची रहे इसका ख्याल मन में उमड़ता रहता है...कमबख्त नींद भी नहीं आती सही से...लगता है हर चीज की तरह कुछ दिनों बाद नींद भी खरीदनी पड़ेगी......और गलती से देश के बारे में सोच भी लिया तो सरकार से लेकर प्रशासन को गाली देने के सिवा कुछ ज्यादा दिमाग में नहीं आता..चलो कुछ के मन में विकास, सुधार और महिला उत्थान जैसे मुद्दे आ भी जाएं तो इन मुद्दों पर लेक्चर देने तक ही विषय सीमित रहता है......क्यों...संसाधन की कमी का रोना...अब जब नेता ही हमेशा संसाधन का रोना रहते हैं तो हम तो जनता हैं.....तो समझे जनाब यही है युवाओं का वोट खेल

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

प्यार हुआ, कई-कई बार हुआ

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

मैनें सुना है कि ज्यादातर लड़कियों के प्यार की शुरुआत सिर्फ इस बात से होती है क्योंकि वो जीतना चाहती..जीतना लड़कों से...शायद लड़कों को अपने सामने गिड़गिड़ाता देख उन्हें खुशी होती है कि वो समाज की अगुवाई करने वाले तथाकथित पुरुष वर्ग को झुकाने में कामयाब रही....ये सिक्के का एक पहलू हो सकता है लेकिन क्या इसका दूसरा पहलू भी है......जरूर.....इसके दूसरे पहलू में प्यार को उपासना, पूजा जैसे शब्दों से अलंकृत किया जाता है और कुछ हद तक सही भी होता है....कुछ हद तक इसलिए कि मैं समझता हूं कि लड़कियां ही इसमें अक्सर ईमानदार होती हैं....जहां तक लड़कों के प्यार की बात है तो वो हमेशा दिमाग से होता है दिल से नहीं..आप कह सकते हैं कि वो प्यार में भी पूरी तरह प्रोफेशनल होते हैं......अब 21वीं सदी की लड़कियां भी लड़कों के प्यार को अमल में ला रही हैं...
प्यार की चर्चा इसलिए कि हमें भी प्यार हुआ और कई-कई बार हुआ...ये अलग बात है कि मैं कभी इस मामले में सफल नहीं रहा...क्यों पता नहीं लेकिन जो बातें मैंने ऊपर लिखी उसका पता मुझे जरूर चल गया....

दर्द है सुबह शाम लेकिन...

बदलते वक्त के साथ हम भी बदल रहे हैं और बदल रही हैं हम से जुड़ी जिंदगियां...हमारे वजूद में भी फर्क आ रहा है.....तो क्या समय का पहिया सिर्फ औऱ सिर्फ हमें बदलने के लिए बना है...लगता तो यही है.. जब हम बच्चे तो पैसे कमाने और हर चीज पाने की चाहत इतनी प्रबल थी कि पढ़ाई में ध्यान कम और इस इच्छा की पूर्ति कैसे की जाए इस पर ज्यादा होती थी...फिर हम जवां हुए और हमारी चाहत किसी का प्यार पाने और जो कुछ पैसे हमारे पास थे उसको दोगुने करने की हुई....किसी ने सच कहा है भूख कभी शांत नहीं होती..वो चाहे पैसे की हो या पेट की या फिर शारीरिक....लेकिन इन सब के बीच हमने बुहत कुछ खोया...खोया अपना बचपन..खोयी अपनी जवानी और खोया अपना आज और बहुत हद तक कल भी.....फिर क्या पाया हमने...आज जब इस सवाल का जवाब खुद से मांगता हूं तो लगता है शायद कुछ नहीं... जिंदगी की सिलवटें परत-दर-परत खोलते हुए भी शर्म आती है आखिर किस लिए संघर्ष कर रहे हैं हम क्या वो पाने के लिए जिसको पाकर हम खुश नहीं या वो पाने के लिए जिससे हम दूसरों को नीचा दिखा सकें या फिर समाज में रुतबा पाने की होड़ में हमने अपनी खुशी गुम कर दी....सवाल कई हैं लेकिन जवाब नहीं..आखिर जवाब आए भी तो कहां से और किस मुंह से..जिस सफलता की डींगे हांकते हम नहीं थकते उसकी बुराई हम कैसे करें..ज्यादती होगी...ये दर्द सिर्फ मेरा नहीं जहां तक मैं समझता हूं ये दर्द मेरे जेनरेशन की युवा पीढ़ी का है और इस आग में हम सब जल रहे हैं...दर्द है सुबह शाम लेकिन मुंह से उफ तक नहीं निकलती...खैर जीवन रूपी नैया शायद इसी तरह चले क्योंकि हमसे क्रांति या बदलाव की उम्मीद बेकार है..हम आदी हो चुके हैं उस जिंदगी की जो हमें पसंद नहीं और जिसको बदल देने की कसमें हम रोज खाते हैं...