सोमवार, 9 नवंबर 2009

लटकलअ त गेलअ बेटा

आज एक पत्रकार भाई की दर्द भरी कहानी पढ़ी, आखें भर आईं....बेचारे को नौकरी से निकाल दिया गया था....क्यों इसके ढेर सारे कारण रहे....इनमें चाटुकार न होना से लेकर शोषण न सहने की आदत तक होना शामिल रहा....हां एक और बात आत्मसम्मान जैसा शब्द तो पत्रकारों को सीखना ही नहीं चाहिए... क्योंकि हमेशा ये याद रखना चाहिए बॉस इज आलवेज राइट.....खैर मैं ढेर सारे मुद्दों में सबसे पहले शोषण की बात करना चाहूंगा........लगता है शोषण शब्द ग्लोबलाइज हो गया है...पहले जब हम बच्चे थे या स्कूल कॉलेज में पढ़ते थे तो मजदूरों या बहुत पैसे वालों द्वारा कम पैसे वालों का शोषण देख मन खौल उठता था...दोस्तों के बीच बड़ी-बड़ी बातें करते थे इस बीमारी को दूर करने के लिए....लेकिन जब रोजी-रोटी की खोज में निकला तो पता चला ये आसान काम नहीं...और जब से पत्रकार बना हूं तो ये धारना और मजबूत हो गई है...मुझे लगता है सबसे ज्यादा शोषण तो पत्रकारिता के क्षेत्र में ही है... इनमें मानसिक शोषण सबसे ज्यादा है... और अगर आप पत्रकार (खासकर टीवी पत्रकार) हैं तो बौद्धिक होने से ज्यादा आपको हल्ला मचाना आना चाहिए...मतलब जितना ज्यादा हल्ला मचाएंगे उतना आगे जाएंगे....इसको टीवी पत्रकारिता में हाई इनर्जी लेवल कहा जाता है और अगर आप बॉस को देखकर अपने जुनियर पर चिल्ला सकें तो और भी अच्छा...और हां जुनियर को अपना गुलाम समझना न भूलें....तुमने ऐसा क्यों किया....तुमने ऐसा किया तो मुझसे पूछा क्यों नहीं ...तुम जवाब क्यों देते हो...तुमने मेरे आदेश की अनदेखी क्यों कर दी...रात में जाने के बाद सुबह की शिफ्ट क्यों नहीं कर सकते....ऐसे ढेरों सवाल रोज आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे.... हैं तो और भी बहुत कुछ लेकिन ज्यादा लिखना फिलहाल मेरी सेहत के लिए ठीक नहीं...आप समझ रहे हैं न आखिर हूं तो मैं भी टीवी पत्रकार ही न और बाबू अपनी नौकरी भी तो बचानी है...किसी की नजर पड़ गई मेरे टिप्पणी पर तो 'लटकलअ त गेलअ बेटा' वाली हालत हो जाएगी, दाने-दाने को मोहताज हो जाउंगा..इसलिए भैया राम-राम

1 टिप्पणी:

Parmarth Suman ने कहा…

rajeev jee yehi to katu sachchai hai jindgi ki. ye sirf patrakarita ke kshetra men hi nahi apitu sare jobs chahe wo govt ho yaa private sab jagah hota hai.
aapne kam sabdo men hi sab kuchh bayan kar diya hai, iske liye aapka sukriya.